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भूरेठियाँ नी मानूंँ ये

Posted on : 16-April-2022 17:04:23 Writer : Garima


भूरेठियाँ नी मानूंँ ये







मैं हिमाद्री………..


 आयु मत पूछिए, बस ये जान जाइए कि मैंने युगों को बदलते देखा है। अपनी गोद में समेटे अखंड भारतवर्ष के हर सुख दुख का साक्षी रहा हूंँ। मैंने इसे उत्सव मनाते देखा तो शोक के ज्वार में डूबते भी देखा लेकिन कभी पराजित होते नहीं देखा। मैंने इसकी सिसकियांँ भी सुनी तो युद्ध नाद के संग हर्ष लहरी भी सुनी अश्रु के धार पोंछे तो खिलखिलाहट भी बाँटी। किस्सा प्रारंभ करूंँ तो पृथ्वी के कई घूर्णन पूर्ण हो जाएँ।


 चलिए सुनाता हूंँ आपको भारतवर्ष के एक अत्यंत प्रिय पुत्र की असाधारण सी कथा।


पृष्ठभूमि


अखंड भारत वर्ष, इस स्वर्णमय, स्वर्गमय, परम शांत राष्ट्र को प्रथम बाह्य आघात यूनानी आक्रांता सिकंदर के आक्रमण से हुआ, जिसने विक्रम संवत 277 पूर्व इस धरा की ओर कदम बढ़ाए। सिकंदर के मार्ग में जो भी राजा और राज्य आए वह सिकंदर से पद दलित होते गए परंतु उस आक्रांता का भारत में प्रवेश झेलम नदी के तट पर ही अटक गया और वहांँ के राजा पोरस भारतीय गौरव के पर्याय बन गए।


सिकंदर के आक्रमण के बाद लगभग 1000 वर्षों तक भारत राष्ट्र की सीमाओं पर शांति रही लेकिन आठवीं सदी के आरंभ में शांति को एकबार फिर ग्रहण लग गया और हमारी सीमाएंँ पुन: असुरक्षित होने लगीं।

इस बार ख़लीफा उमर ने भारत पर चढ़ाई की लेकिन वह विफल रहा। वर्ष 705 में कासिम के बेटे महमूद ने भारत पर आक्रमण किया और सिंध प्रांत को विजय करता हुआ वह मेवाड़ राज्य की ओर बढ़ आया जिसकी स्थापना देवर्षि हारीत के आशीर्वाद से भगवान एकलिंग के स्थायी स्वामित्व के साथ की गई थी और संचालन मात्र के लिए रघुवंशी राजाओं ने भगवान एकलिंग के दीवान के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी इस पावन राज्य की सेवा स्वीकार की। महमूद को बप्पा रावल ने पराभूत किया।


बाद के समय में महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी,अलाउद्दीन खिलजी और बाबर जैसे आक्रांताओं ने भारत का समस्त वैभव हड़पने का पूर्ण प्रयास किया लेकिन शाश्वत मूल्यों की रक्षा में हमारे पूर्वजों ने भी अदम्य साहस का परिचय दिया और निरंतर आघातों के बावजूद भारत में भारतीय बनी रही।

भारतीयता पर सर्वाधिक घातक प्रहार पाश्चात्य आगमन से शुरू हुआ पुर्तगाली नागरिक वास्को-डी-गामा दक्षिण अफ्रीका की परिक्रमा करते हुए देवधारा के कालीकट बंदरगाह पर पहुंचा। वास्को-डी-गामा का आगमन जहाँ यूरोप के लिए धन-संपत्ति का द्वार बना, वहीं भारतीयों के शांत जीवन में झंझावत का आरंभ था। सभ्यता और संस्कृति का संघर्ष था।


२३ जून १७५७ में हुए प्लासी के युद्ध ने ब्रिटिश सत्ता की आधारशिला स्थापित की और तभी से प्रारंभ हुआ गोरे अंग्रेजों का काला अध्याय।

वर्ष प्रति वर्ष बरतानिया बर्बरता बढ़ती गई।कभी नवीन कानून की आड़ में तो कभी सर्वोच्चता स्थापित करने हेतु वो अन्याय और दमन की पराकाष्ठा पार करते रहे।

१० मई सन् १८५७ का वो महासमर जिसमें मंगल पांडे,रानी झांसी, वीर कुँवर सिंह, तांत्याटोपे जैसे देशभक्तों ने स्वयं को आहुत कर दिया वहीं कुछ रजवाड़े गोरों के मित्र और शुभचिंतक बन भारत माँ को कलंकित करते रहे।

मैं मौन साक्षी बना रहा।देखता रहा ये दृश्य और मेरी संतति का संघर्ष जो चहुँओर समान था।

इन्हीं के बीच राजपूताने की वीर प्रसूता भूमि ने एक रणबाँकुरे को जन्म दिया जो काल से लड़ता आगे बढ़ा।



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