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Posted on : 31-January-2022 17:01:15 Writer : राजीव रंजन प्रसाद
स्वर्णिम विजय – भारतीय सेना की गौरव गाथा
हाल ही में पाकिस्तान की क्रिकेट टीम, बांग्लादेश के दौरे पर थी। प्रैक्टिस सत्र में उन्होंने ग्राउंड पर अपना झंडा लगा दिया। कोई और टीम यह करती तो शायद बड़ी बात न होती, लेकिन बांग्लादेश में पाकिस्तान के विरुद्ध भावनायें आज भी सतह पर है। इस घटना के कारण समूचे बांग्लादेश में आक्रोश की लहर दौड़ गई, उनके मन मानस में एक बार फिर वर्ष 1971 से पहले के हालात सजीव हो उठे थे। हुसैन हक्कानी पाकिस्तान के पूर्व राजनयिक हैं, उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है “भारत और पाकिस्तान – हम क्यों दोस्त नहीं हो सकते?”। वर्ष 1971 की परिस्थितियों को पाकिस्तान की निगाह से समझने कि लिए यह पुस्तक एक बेहतर विकल्प हो सकती है। हक्कानी लिखते हैं – “बांग्लादेश युद्ध से यह सीखा जाना चाहिए था कि गुस्साई जनता से परहेज़ करना चाहिए, क्योंकि यही जनता आगे चलकर दुश्मन देशों द्वारा प्रशिक्षित अलगाववादी बन सकती है। बजाए इसे समझने के, पाकिस्तानी सेना के बड़े अधिकारी 1971 के बाद से ही सिर्फ़ अपनी हार का बदला लेने के लिए बांगलादेश में हासिल भारतीय सफलता की नक़ल करना चाहते हैं।” क्या इस विश्लेषण में यह परिलक्षित नहीं होता कि पाकिस्तान ने अपनी विराट पराजय से अब भी कोई सबक़ नहीं लिया है? इसमें कोई संदेह नहीं कि पाकिस्तान के निर्माता कहे जाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा गढ़े गये, साम्प्रदायिकता से ओत-प्रोत और विषैले ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ की कलई तभी खुल गई थी, जबकि स्वतंत्रता पश्चात हुए विभाजन के बाद पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान, एक ही धर्मावलंबी होते हुए भी, एक साथ मिलकर रहने के लिए तैयार नहीं थे। जिन्ना का बनाया दूसरा राष्ट्र अपनी ही ऐतिहासिक भूल को ढ़ोता हुआ एक बार फिर दो टुकड़े हो गया, इसका दोष भारत पर मड़ दिया जाता है। जिन दरारों का कारण आंतरिक और विशुद्ध राजनैतिक था, जिस विभाजन के पीछे क्षेत्रीयता कार्य कर रही थी, भाषा विभेद जिसके लिए बड़ी भूमिका निर्वहित कर रहा था; उसे केवल भारत क षडयंत्र मान लेना संभवतः सत्य से आंख मूँद लेना भर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्ष 1971, भारत तथा पाकिस्तान दोनों देशों के इतिहास और भूगोल को बदलने के दृष्टिगत निर्णायक सिद्ध हुआ है। पाकिस्तान के विरुद्ध एक ऐसा युद्ध जिसकी टीस पड़ोसी देश को उसके अस्तित्वपर्यंत तक सालती रहेंगी। इसी वर्ष भारत के पूर्वी छोर पर बांग्लादेश का उदय हुआ जबकि पाकिस्तान अपने 93,000 सैनिकों को बंधक देखने के लिए, हई साथ विश्व इतिहास के सबसे शर्मनाक आत्मसमर्पण के पश्चात बाध्य था। नैसर्गिक कारणों के अतिरिक्त, यह घटनाक्रम भारतीय सैन्य बलों की वीरता, दक्षता और निर्णयक्षमता का परिणाम था इसलिए आज पचास वर्ष पर्यंत हमारे लिए भी हर्ष और विमर्श का समय है।
अंग्रेजों ने भारत का विचित्र विभाजन किया, जिसके अंतर्गत अनेक विवादित परिक्षेत्र गढ़ दिए। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सैंकड़ों राजे रजवाड़ों द्वारा शासित क्षेत्रों को मिला कर भारत को एक विस्तृत भूभाग बना दिया। पाकिस्तान अपने अनेकों प्रपंचों के बाद भी जूनागढ़, कश्मीर, हैदराबाद या कि भोपाल जैसे परिक्षेत्रों को हथिया न सका, साथ ही वह स्वयं पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान नामक दो पृथक हिस्सों में विभाजित होने के लिए बाध्य था। भारतीय परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद ही कश्मीर पर कबाईली हमला, इसके बाद वर्ष 1965 का युद्ध, ऐसे कदम थे जिनका समुचित उत्तर तो दिया गया लेकिन इससे आगे बढ़ कर पड़ोसी देश को याद रह जाने योग्य कठोर सबक़ सिखाए जाने की आवश्यकता थी। पाकिस्तान को ऐसा संदेश दिया जाना था जिसके बाद भारतीय उप-महाद्वीप में शांति-प्रगति का वातावरण निर्मित हो सके। अमेरिका की गोदी में बैठ कर इठलाते पाकिस्तान के भीतर सर्वशक्तिमान होने का घमंड था जिसका चूर चूर किया जाना भी भारत की आवश्यकता थी। इसका अवसर स्वयं पाकिस्तान ने प्रदान कर दिया। कुछ लोगों के पूर्वाग्रह और सत्तालोलुपता के कारण बना पाकिस्तान केवल भारत से ही शत्रुता रखता हो ऐसी भी बात नहीं थी, वह तो उन मोहाज़िरों से भी लड़ रहा था जो भारतीय भूभाग से पलायन कर अपने सपनों के देश पहुँचे थे; वह तो शियाओं-अहमदियाओं से भी लड़ा रहा था जो मुसलमान हो कर भी काफिर माने गए थे; वह तो उन बंगालियों से भी लड़ रहा था जिनका मज़हब तो इस्लाम था लेकिन भाषा-पहनावा अपने ही देश के पश्चिमी परिक्षेत्र से बिलकुल भिन्न। पाकिस्तान आंतरिक समस्याओं से भी जूझ रहा था, सेना उसकी राजनीति पर पूरी तरह क़ाबिज़ हो चुकी थी और बंदूखो से ही जनता को हांकना चाहती थी।
पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान दो अलग अलग क्षेत्र, अलग तरह की राजनैतिक दिशा तय कर रहे थे। एक ओर पश्चिमी पाकिस्तान ही सम्पूर्ण देश का नीतिनिर्धारक था, वहीं शेख मुजीब-उर-रहमान के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान अपनी राजनैतिक स्वायत्ता के लिए संघर्ष कर रहा था। इस सब का आरम्भ तभी हो गया था, जबकि वर्ष 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान एक ओर पश्चिमी पाकिस्तान सैन्य मोर्चे पर जूझ रहा था, उसने अपने पूर्वी हिस्से को रजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक रूप से उसके ही हाल पर छोड़ दिया। ऐसे हालातों से पुनः दो-चार न होना पड़े, इसे ध्यान में रखते हुए राजनैतिक पार्टी आवामी लीग के अध्यक्ष शेख़ मुजीब ने 23 मार्च 1966 को ‘हमारा जीवित रहने का अधिकार’ शीर्षक से पर्चा निकाला जिसके अंतर्गत उन्होंने छह सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। इन सूत्रों में देश के पूर्वी हिस्से को स्वायत्ता प्रदान करने की माँग थी। वैसे भी तब भाषा विवाद अपने चरम पर था क्योंकि उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का मुखर विरोध पूर्वी पाकिस्तान के बहुतायत बंगाली भाषी कर रहे थे। जैसा कि दमनकारी सत्ता की प्रवृत्ति होती है, शेख़ मुजीब अब पश्चिमी पाकिस्तान के निशाने पर आ गये, उनपर अलगाववादी होने का आरोप मढ़ा गया, जेल में डाला गया, मुक़दमा चलाया गया। इस सबसे इस राष्ट्रनेता की हिम्मत टूटी नहीं अपितु वे अधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय हो कर उभरे।
उन्हीं समयों में पाकिस्तान पर वास्तविक लोकतंत्र की बहाली का दबाव था, यही कारण है कि जनरल अयूब इस्तीफ़ा देने के लिए बाध्य हुए तथा जनरल याहिया खान नए राष्ट्राध्यक्ष बनाए गए। उन्होंने दिसम्बर, 1970 को पाकिस्तान में राष्ट्रीय संसद के लिए चुनावों की घोषणा कर दी। यह ठीक है की शेख़ मुजीब लोकप्रिय थे तथापि एक और परिघटना ऐसी है जिसने पाकिस्तान के चुनावों में बड़ी भूमिका निभाई थी। इसी वर्ष, नवम्बर माह के मध्य बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर में तूफ़ान ने दस्तक दी। भयावह तबाही हुई लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान ने न तो आपदा प्रबंधन में सक्रिय भूमिका निभाई, न ही चुनावी माहौल होने के बाद भी वहाँ से किसी नेता ने दौरा कर पीड़ितों के आँसू पोछने की ज़हमत भी उठाई। ठीक इस समय, भारत ने औपचारिक अनुमति की प्रतीक्षा किए बिना सहायता पहुँचाई और संकट से पीड़ितों को उबारने में अपनी मानवीय भूमिका निर्वाहित की। परिणाम यह हुआ कि जब चुनाव हुए पूर्वी पाकिस्तान की 169 से 167 सीटों पर मुजीब की आवामी लीग को सफलता मिली। इसका अर्थ यह था की 313 सीटों वाली पाकिस्तानी संसद में शेख़ मुजीब के पास सरकार बनाने के लिए पूर्ण बहुमत था। पूर्वी पाकिस्तान के प्रभावशाली नेता को मिले बहुमत के पीछे का जनबल समझने के लिए वर्ष 1961 की जनगणना का अवलोकन आवश्यक है। पश्चिमी पाकिस्तान क्षेत्रफल (7,98,425 वर्ग किलोमीटर) में बड़ा था, जिसकी तब कुल जनसंख्या थी लगभग 4 करोड़ 29 लाख; इसके उलट पूर्वी पाकिस्तान का तुलनात्मक क्षेत्रफल (1,39,795 वर्ग किलोमीटर) कम था परंतु जनसंख्या 5 करोड़ 84 लाख से अधिक थी। लोकतंत्र में जनबल का यह गणित पूर्वीपाकिस्तान को उसकी संसद में स्वाभाविक रूप से अधिक शक्ति प्रदान करता था। यही कारण है कि पश्चिमी पाकिस्तान के रसूखदार नेता यह नैरेटिव गढ़ रहे थे कि पूर्वी पाकिस्तान दर-असल एक लाईबिलिटी है। लगातार बाढ़ और तूफ़ानों से जूझने वाला यह क्षेत्र पाकिस्तान के संसाधनों पर दबाव डाल रहा है। एक प्रकार से पूर्वी-पाकिस्तान उपनिवेश भर था जिसे अधिक अधिकार-स्वायत्तता देने की भी पाकिस्तानी नेतृत्व ने कभी आवश्यकता नहीं समझी, ऐसे में शेख़ मुजीब को प्रधानमंत्री मान लेने में पाकिस्तान के रसूखदार तबके में भीषण प्रतिरोध था।
शेख़ मुजीब को सत्ता प्रदान करने के लिए पाकिस्तान क्यों तैयार नहीं था? यदि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान दोनो मिल कर एक देश थे तो जिसने चुनाव जीता, वही सत्ता संचालन का प्राधिकारी होना चाहिए, इसके उलट मुजीब के विरुद्ध धोखाघाड़ी की पटकथा लिखी गयी। इस बात ने पूर्वी पाकिस्तान के सब्र को भड़का दिया, विद्रोह की आग तेज हो गयी, विद्यार्थी आंदोलन पूरी सशक्तता से प्रतिरोध का स्वर बन गए। 28 फ़रवरी, 1971 को ढाका में भारी मात्रा में पाकिस्तानी सैनिक प्रविष्ट हुए। अगली कड़ी में सी-130 जहाज़ रसद और सैन्य सामग्रियाँ ले कर पहुँचे, समुद्री मार्ग से भारी संख्या में सैनिकों को दमनात्मक कार्रवाईयों को आगे बढ़ाने के लिए भेजा गया। एम वी स्वात युद्धपोत हथियार और गोलाबारूद ले कर जब तट पर पहुँचा तो स्थानीय पोर्टरों से सामान उतारने से इनकार कर दिया था। यह सभी तैयारियाँ पाकिस्तानी लेफ़्टिनेंट जनरल टिक्का खान और मेजर जनरल ख़ादिम हुसैन की अगुवाई में गोपनीयता से संचालित हो रही थीं, इसे ऑपरेशन सर्च लाईट नाम दिया गया था। इस मध्य
23 मार्च, 1971 को जब पाकिस्तान अपना गणतंत्र दिवस मना रहा था, तब भावी बांग्लादेश के ध्वज से ढाका को ढक दिया गया। रेडियो पाकिस्तान ढाका का नाम बदल कर ‘ढाका बेतार केंद्र’ कर दिया गया, यही नहीं सर्वत्र ‘जोय बांग्ला स्वाधीन बांग्ला’ के नारे गुंजायित होने लगे थे। इसी बीच एक विमान अपहरण की घटना से क्षुब्ध अथवा उसे अवसर मान कर भारत ने पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच की अपनी वायुसीमा, पाकिस्तानी विमानों के आवागमन के लिए प्रतिबंधित कर दी।
पूर्वी पाकिस्तान मे तीव्र हो रहे प्रतिरोधों से निबटने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान के पास अपनी ही योजना थी। 25 मार्च, 1971 की अर्धरात्रि से ऑपरेशन सर्चलाईज का आग़ाज़ हुआ, शेख़ मुजीब को गिरफ़्तार कर लिया गया, उन्हें कराची ले ज़ाया गया। इधर दुर्दांत दमनात्मक कार्रवाईयों का आरम्भ भी आधी रात से ही हो गया था। पहली दो रातों में ही पचास हज़ार से अधिक नागरिक केवल ढाका में मारे गए थे। पाकिस्तानी सेना ढाका को बरबाद-तबाह और आग के हवाले करने के लिये इस तरह उतावली थी मानो यह उनका अपना देश ही न हो। पूर्वी पाकिस्तान के साठ हज़ार में से पंद्रह हज़ार गाँवों पर बमबारी की गयी। इक्कीस ज़िला मुख्यालयों में से बीस पर हमले किए गए। ढाका विश्वविद्यालय और वहाँ के छात्रावासों को विशेष रूप से निशाना बनाया गया, अगले कई दिनों तक पाकिस्तानी सेना अपने ही देश के नागरिकों को जलाती, मारती और बेदख़ल करती रही। पाक सेना का असल चेहरा उनकी कार्रवाई में देखा जा सकता था जहां बड़ी मात्रा में बलात्कार और स्त्री शोषण की दुर्दांत-असहनीय घटनायें उनके द्वारा अंजाम दी गयीं। बीबीसी के संदर्भ से यहाँ फ़िरदौसी प्रियवर्शिनी की कहानी का उल्लेख कर रहा हूँ जो उस दौर की घटनाओं पर समग्र दृष्टि है। वर्ष 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के दक्षिणी हिस्से खुलना में रह रही फ़िरदौसी प्रियवर्शिनी की उम्र केवल 20 वर्ष थी। मीडिया को अपनी कहाने बताते हुए वे कहती हैं कि अराजकता के उस दौर में उनके बॉस ने उन्हें किसी काम से पाकिस्तानी सेना के कमांडर के पास भेजा। पाक सेना इतनी निरंकुश और दु:शासन की मनोवृत्ति से ग्रसित हो गयी थी की सैन्य कमांडर ने बिना किसी भय या संकोच के प्रियोवर्शिनी की साड़ी खींच ली। क्रूरता के साथ बलात्कार किया गया। सिलसिला यहीं नहीं रुका अपितु इसके बाद अनेक पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों और सैनिकों ने अगले आठ माह तक उसके साथ बार-बार बलात्कार किया। वे कहती हैं "मेरी कहानी उस दौर के पूर्वी पाकिस्तान में हर दूसरी महिला की कहानी है।"
पाकिस्तान की रग रग में जिहादी मानसिकता है, यही कारण है की धर्म देखा-पूछ कर हत्याए और बलात्कार बड़ी मात्रा में किए जा रहे थे। बड़ी मात्रा में मंदिर और गिरिजाघरों पर हमले किए गए जिनका इस राजनैतिक लड़ाई से कुछ लेना देना भी नहीं था। एक मात्र हिंदू छात्रावास जगन्नाथ हॉल को न केवल नष्ट किया गया बल्कि उस में पढ़ रहे लगभग 700 हिंदू छात्रों का क़त्ल कर दिया गया। कई लाख हत्याए हुईं लेकिन यदि टाईम्स मैगज़ीन के 2 अगस्त 1971 के अंक का संदर्भ लिया जाए तो भारत में पूर्वीपाकिस्तान से भाग कर आने वाले शरणार्थियों की भारी संख्या थी, इनमें से पछत्तर प्रतिशत हिंदू थे, क्योंकि मुस्लिम बाहुल्य पाकिस्तानी सेना हिंदुओं के प्रति घृणा का भाव रखती थी। लगभग एक करोड़ से अधिक शरणार्थी भारतीय सीमा में प्रवेश कर गए थे, अब यह समस्या केवल पाकिस्तान की नहीं रह गयी। इसके साथ ही यह भी जोड़ना आवश्यक है की हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। पूर्वी पाकिस्तान अपनी ही सेना की मुख़ालफ़त में उतर गया। विद्यार्थी, मज़दूर, किसान और आमजन ही नहीं इनके साथ बंगाली मूल के सैनिकों और पुलिस जवानों ने भी हथियार उठा लिए। वे अपनी माटी की अपनी ही सेना से मुक्ति के सम्वाहक अथवा मुक्तिवाहिनी बना गए तथा अपनी क्षमता के अनुसार अपनी ही सेना को मुंहतोड़ जवाब देने लगे। अप्रैल 1971, कैबिनेट की बैठक में भारतीय प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और जनरल मानिक शॉ के बीच हुई वार्ता बहुचर्चित है। शीर्ष सैन्य अधिकारी ने राजनैतिक नेतृत्व से कहा कि युद्ध अवश्य होगा क्योंकि पाकिस्तान ने परिस्थितियाँ ऐसी ही निर्मित कर दी हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मानसून के बीत जाने तक प्रतीक्षा करना सही रणनीति है। जनरल मानिक शॉ ने मानसून के पश्चात होने वाले युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दीं, समानांतर अब भारत ने भी पूर्वी पाकिस्तान की परिस्थितियों में सीधा दख़ल देना आरम्भ कर दिया था। रॉ और सेना की संयुक्त भूमिका यदि अचूक कार्रवाई की योजना में थी तो दूसरी ओर मुक्तिवाहिनी को प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा जिससे वे पाक सेना के समक्ष मज़बूत प्रतिरोध प्रस्तुत कर सकें। इसी कड़ी में भारतीय हस्तक्षेप पर बात करने से पहले राजनैतिक दूरदर्शिता और वैश्विक लामबंदी पर भी चर्चा कर लेनी चाहिए।
बरसात के बाद ही सैन्य कार्रवाई होनी थी, तब तक विश्व के सम्मुख इन घटनाओं को इस तरह रखा जाना आवश्यक था जिससे पाकिस्तान किसी भी तरह अपने कुकृत्य को सही न ठहरा सके। 31 मार्च, 1971 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारतीय सांसद में भाषण देते हुए पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की मदद की अपील की। उन्होंने जून, 1971 को कोलकाता के शरणार्थी शिविरों का दौरा किया। मध्यप्रदेश, बिहार, ओड़िशा आदि क्षेत्रों में शरणार्थियों के बसाने की विविध कैम्पों में व्यवस्था की गयी। समानांतर रूप से भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ, फ़ूड एंड एग्रीकल्चरल ओरगेनाईजेशन सहित अनेक विदेशी एजेंसियों से शरणार्थी प्रबंधन में सहायता माँगी। देशी विदेशी मीडिया शरणार्थी शिविरों के हालात और भारत पर पड़ने वाले दबावों की जानकारी निरंतर वैश्विक कर रहा था। भारत सरकार ने पाक परोपागेंड़ा को ध्वस्त करने के लिए दो खण्डों में बांग्लादेश डॉक्युमेंट का प्रकाशन किया। भारत के अनेक वरिष्ठ नेता कूटनीतिक बढ़त हासिल करने के दृष्टिगत रूस, जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, आदि देशों से सम्पर्क में थे। 29 जुलाई, 1971 को भारतीय सांसद में सार्वजनिक रूप से पूर्वी पाकिस्तान के मुक्तियोद्धाओं की मदद करने की घोषणा की गई। युद्ध की परिस्थितियों की बीच गुटनिरपेक्षता की नीति मायनाहीन हो गयी थी। भारत को स्पष्ट रूप से किसी न किसी महाशक्ति का साथ लेना अवश्यम्भावी था। 9 अगस्त, 1971 को वह ऐतिहासिक परिघटना हुई जबकि बिना किसी ख़ेमे में गए हुए सोवियत भारत मैत्री समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। वह समय जब भारत के विरुद्ध अमेरिका, पाकिस्तान और चीन का गठबंधन बन रहा था, ऐसे में सोवियत विदेश मंत्री अंद्रेई ग्रोमिको भारत आए और उन्होंने भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह के साथ सोवियत-भारत शांति, मैत्री और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए। यह संधि, शीतयुद्ध के उस दौर में भारत को सुरक्षा कवच प्रदान करती थी क्योंकि अब भारत पर हमले का अर्थ था रूस पर हमला।
अक्टूबर-नवंबर, 1971 के महीनों में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने यूरोप और अमेरिका का दौरा किया। उन्होंने दुनिया के लीडरों के सामने भरत के नजरिये को रखा। पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे मानवाधिकार हनन को देखने समझने के बाद भी अमेरिका पाकिस्तान के पक्ष में अटल खड़ा था। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को मिलने का समय तो दिया परंतु बहुत ही निम्न कोटि की हरकत करते हुए तय समय की बैठक के बाद भी पैंतालीस मिनट उन्हें बाहर इंतज़ार करवाया। अवसर की गंभीरता को समझते हुए श्रीमती गांधी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी अपितु उन्होंने वस्तुस्थिति से विश्वशक्ति को अवगत कराया और त्वरित हस्तक्षेप की माँग की। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और भारतीय प्रधानमंत्री के बीच बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। निक्सन ने मुजीबुर रहमान की रिहाई के लिए कुछ भी करने से हाथ खड़ा कर दिया। निक्सन मानते थे कि भारत युद्ध करने जा रहा है इसलिए वे चाहते थे कि पश्चिमी पाकिस्तान की सैन्य सरकार को दो साल का समय दिया जाए। दूसरी ओर इंदिरा गांधी का कहना था कि पाकिस्तान में स्थिति विस्फोटक है। उन्होंने निक्सन को स्पष्ट किया कि यदि पाकिस्तान ने उकसावे की कार्रवाई जारी रखी और यदि शरणार्थी समस्या इसी तरह बनी रही तो भारत बदले कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगा। भारत ने सभी बिसात बिछा लिये थे, बरसात बीत गयी थी और अब जनरल मानिक शॉ की सामरिक नीति के तहत हमारा सैन्यबल किसी भी समय पाकिस्तान पर आक्रमण के लिए प्रस्तुत था। यह अनुमान लगा लिया गया कि युद्ध दो मोर्चों पर लड़ना होगा।
एक ओर जहां पूर्वी पाकिस्तान का संकट विस्फोटक हो गया, वहीं पश्चिमी पाकिस्तान में राजनैतिक अस्थिरता को ढकने के लिए भारत के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई की निरंतर मांग की जा रही थी। भारत किसी तरह आक्रांता नहीं कहलाना चाहता था जबकि आक्रमण करने के वास्तविक कारण विद्यमान थे। भारत युद्ध के लिये अपनी तैय्यारिया बड़े स्तर पर कर रहा था, गोपनीय रूप से विद्यमान सामरिक कमियों को दूर करने के प्रयास किए गये। रूस से टैंक और अन्य साजो-सामान मंगाए गए, सेना की यूनिटों का नूतनीकरण किया गया। इसके साथ ही साथ पूर्वोत्तर में सड़क निर्माण को तेज किया गया, पुल निर्माण की यूनिटों को पश्चिमी मोर्चे से पूरब भेजा गया, पश्चिमी मोर्चे पर बचाव की मुद्रा के अनुरूप फॉरमेशन को लगाया गया जबकि पूर्वी मोर्चे पर पूर्वी कमान के चीफ ऑफ स्टाफ मेजर जनरल जेकब की अगुवाई में पाकिस्तानी सैनिक छावनियों से न भिड़ते हुए सीधे ढाका की तरफ कूच करने की योजना बनाई गई। नौ सेना ने पाकिस्तान के कराची बंदरगाह की सम्पूर्ण घेराबंदी कर दी साथ ही भारतीय वायुसेना ने अपने दम-खम से जमीनी आक्रमण को पूरी तरह समर्थन को अंजाम देने की रूपरेखा बनाई। इस सबके बीच भारत ने बांग्लादेश से विस्थापित बांग्लादेशी युवकों को हथियार देकर मुक्ति वाहिनी को प्रशिक्षण देने का जिम्मा मिजोरम और त्रिपुरा में जारी रखा। इस स्पष्ट समर्थन और सैन्य प्रशिक्षण के कारण मुक्तिवाहिनी को अनेक मोर्चों पर व्यापक सफलतायें मिल रही थी तथापि पाकिस्तान पर आख़िरी और निर्णायक चोट करने के लिए भारतीय सैन्य कार्रवाई के अतिरिक्त उपाय नहीं था। उतावले पाकिस्तान के कारण अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। 3 दिसम्बर, 1971 की शाम 5.30 बजे पश्चिमी पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमला कर स्वयं पर आक्रमणकारी होने का लेबल चस्पा कर लिया। पाकिस्तानी लड़ाकू जहाजों ने सरगोधा से उड़ान भरकर शाम 5 बजकर 45 मिनट पर अमृतसर एयरबेस पर बम बरसाने शुरू कर दिये। इसके बाद श्रीनगर एयरबेस को निशाना बनाया गया, साथ ही साथ पठानकोट, अनंतीपुर और फरीदकोट पर बम बरसाने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह रात होते होते अंबाला, आगरा, हलवारा, अमृतसर, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर तक विस्तारित हो गया। पाकिस्तान ने अब ज़मीनी हमले आरम्भ कर दिए। जम्मू के पूंछ सैक्टर में युद्धक टैंक भी उतार दिए गये। पाकिस्तानी सेना ने छंब सैक्टर पर आक्रामक किया और अधिकार कर लिया। क्या भारत पाकिस्तान की इसी भूल की प्रतीक्षा कर रहा था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने ऑल इण्डिया रेडियो पर राष्ट्र को संबोधित किया और युद्ध की घोषणा कर दी।
भारतीय वायु सेना ने मोर्चा सम्भाला और पाकिस्तान के मुरीद, मियांवाली, सरगोधा, चांदेर, दिसानेवाला, रसीद और मसरूद एयरबेस को नेस्तनाबूद कर दिया। इधर जब भारतीय थल सेना ने पूंछ और जम्मू के क्षेत्रों में पाकिस्तानी फ़ौज को रौंदना आरम्भ किया तब अतिउत्साही और युद्धोन्मादी पड़ोसी देश ने राजस्थान के रास्ते लोंगोवाल पोस्ट पर कब्जा जमाने की रणनीति अपनाई। 4 दिसम्बर, 1971 को लगभग अट्ठाईस सौ जवानो, पैंसठ अत्याधुनिक टैंकों और भारी गोलाबारूद के साथ पाकिस्तानी सेना ने हमला बोल दिया। इस समय दुश्मन का मुकाबला करने के लिए मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के नेतृत्व में केवल एक सौ बीस सैनिक ही मोर्चे पर डटे हुए थे। इन मुट्ठी भर सैनिकों को वायु सहायता भी तत्काल नहीं मिल सकती थी क्योकि उपलब्ध हंटर विमान रात में उड़ान भरने की क्षमता नहीं रखते थे। असम्भव को भारतीय वीरता ने सम्भव कर दिखाया, बाज से छोटा परिंदा पूरे दमख़म से बिड गया और चमत्कार हो गया। सुबह होने तक पाकिस्तानी फ़ौज भारतीय सीमा नहीं लांघ साक़ी और जब हंटर विमानों ने पाकिस्तानी टैंकों का शिकार करना आरम्भ किया तो दुश्मन के मनोबल की कमर ही टूट गयी थी। पाकिस्तानी फ़ौज दुम डूबा कर और पीठ दिखा कर भाग निकाली। इसके साथ ही भारत पश्चिमी पाकिस्तान के भीतर प्रवेश कर गया यही नहीं 8 दिसंबर, 1971 तक लगभग 640 वर्ग किलोमीटर पाकिस्तानी भू−भाग पर भारतीय ध्वज लहराने लगा था। पश्चिमी पाकिस्तान की आक्रामकता पर हमारी नौ सेना के शौर्य ने भी अंकुश लगाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। युद्धारंभ के दिवस ही, अर्थात 3 दिसम्बर की रात्रि 11 बजकर 20 मिनट पर भारतीय नौसेना ने पी−15 टर्मिट एंटीशिप मिसाइलों से कराची पोस्ट पर घातक हमला किया, एक तरह से पाकिस्तानी नौसेना को अब किसी भी कार्रवाई के लिए लाचार बना दिया गया। गोपनीय रूप से पाकिस्तान अपनी अमेरिकी और घातक पनडुब्बी पीएनएस गाजी के माध्यम से पूर्वी छोर पर कोई बडा हमला करना चाहता था। 4 दिसम्बर, 1971 को गोपनीय सूचना के आधार पर नौसेना ने रणनीति के तहत आईएनएस राजपूत के माध्यम से को पनडुब्बी गाजी को समुद्र के भीतर ही नष्ट कर दिया। 8 दिसम्बर, 1971 को ऑपरेशन पॉयथेन संचालित हुआ जिसके कारण पाकिस्तान के पश्चिमी तट किसी भी सैन्य गतिविधि के योग्य नहीं रहा। 9 दिसम्बर, 1971 को हमारी गर्व और उत्साह से भारी नौसेना ने पाकिस्तान के दस युद्धपोतों और वेसल्स को नष्ट कर दुश्मन की रही सही कमर भी तोड़ दी। पूर्वी पाकिस्तान के हाथ भारतीय वायु सेना ने इस तरह बांध दिये थे कि वहाँ से किसी तरह का हवाई हमला यहाँ तक कि युद्धक विमानों का उडान भरना भी असम्भव हो गया था.
पाकिस्तान की हिम्मत के पीछे अमेरिका के साथ उसकी साथ-गाँठ भी थी। युद्ध में लगातार मिलती शर्मनाक पराजय के बाद भी पाकिस्तान के सैन्य अधिकारी इस बात से आश्वस्त थे की अमेरिका जल्दी ही युद्ध में कूद पड़ेगा और उसी क्षण पासा पलट जाएगा। अपेक्षा के अनुरूप, अमेरिका अपने सेवन्थ फ्लीट के साथ बंगाल की ओर रवाना हो गया गया। इतना ही नहीं ब्रिटेन भी इस युद्ध में आतताईयों के पक्ष में खड़ा था और उसने भी पाकिस्तान की मदद के लिए अपना युद्धपोत ईगल रवाना कर दिया था। ऐसे विकट समय में सोवियत संघ ने संकट मोचक की भूमिका निभाई, इससे पहले कि अमेरिकन पोत कराची, चटगाँव या ढाका तक अपनी पहुँच बना पाता, एंटीशिप मिसाईलों से लैस सोवियत परमाणु पनडूब्बी उनकीं राह का रोड़ा बन गईं। आख़िरकार अमेरिका को पीछे हटने के लिए बाध्य होना पडा। पाकिस्तान के पास अब तिनके का सहारा भी नहीं था। लगे हाथों, भारतीय एयरफोर्स ने कराची और ढाका के एयरबेस को तबाह कर दिया और उसके बाद चटगाँव के बन्दरगाहों को नष्ट कर पाकिस्तान की कमर पूरी तरह तोड़कर रख दी। महाशक्तियों के पीछे हटते ही पाकिस्तान पर सामरिक विजय अब तय हो गयी थी, कूटनीति की भी जीत थी लेकिन इस बददिमाग़ देश पर वह मनोवैज्ञानिक बढ़त अभी हासिल करनी शेष थी जिसके बाद वह कभी भी सीधी लड़ाई से परहेज़ करे। पहले इस क्षेत्री से पश्चिमी पाकिस्तान का सरकारी नियंत्रण ध्वस्त करना था। 14 दिसम्बर, 1971; इसकी ज़िम्मेदारी दी गयी गुवाहाटी में मौजूद भारतीय एयरफोर्स के विंग कमांडर बीके बिश्नोई को जिन्हें गवर्नर हाउस पर हमला करना था। यहाँ पर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के गवर्नर डॉ. एएम मलिक अपने मंत्रिमंडल के साथ युद्ध परिस्थितियों पर चर्चा कर रहे थे। हमले का उद्देश्य सरकार को घुटने पर लाना था, पहले चरण में मिग-21 विमानों ने गवर्नर हाउस पर लगभग 128 रॉकेट दागे। अभी इस धमाके-धुएँ की दहशत शांत भी नहीं हुई थी कि कमांडर एस के कौल की अगुवाई में एक और हमला हुआ, इस बार बमबारी के साथ ही गोलियां भी चलाई गईं। बुरी तरह घबरा गए पाकिस्तानी गवर्नर मलिक ने अपना इस्तीफ़ा दे दिया, इसे पूर्वी-पाकिस्तान में संचालित सरकार का आत्मसमर्पण कहना उचित संज्ञा है। जब सरकार घुटनों पर आ गयी थी तब सेना के गिरे हुए मनोबल की सहज कल्पना की जा सकती है।
अब तक अनेक शौर्य गाथाओं को अपने नाम दर्ज करती हुई, मेजर जनरल जे एफ आर जैकब के नेतृत्व में भारतीय सेना ढाका तक पहुँच गई। सम्पूर्ण पूर्वी पाकिस्तान में जहाँ एक ओर मुक्तिवाहिनी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था दूसरी ओर भारतीय वायुयानों ने ढाका सहित अन्य सैन्य पकड़ वाले क्षेत्रों में पर्चे गिराकर उन पर आत्मसमर्पण के लिए दबाव बनाना आरम्भ कर दिया था। दो मोर्चों पर भीषण युद्ध जारी रहने के फलस्वरूप केवल गिनती के जवान, हथियार, गोला-बारूद लेकर भारतीय सेना ने पाकिस्तानी फौज का मुकाबला किया और अब दुश्मन के ताबूत में आख़िरी कील ठोकी जानी थी। 15 दिसंबर, 1971; पाकिस्तानी जनरल नियाजी ने अपने तरकश का आख़िरी तीर निकाला। उन्होंने अमेरिकी दूतावास के माध्यम से भारतीय आर्मी चीफ जनरल मानेकशॉ तक यह सूचना भिजवाई कि पाकिस्तानी सेना संघर्षविराम के लिए तैयार हैं। इस समय जीत हासिल कर पाकिस्तान के दम्भ का फ़न कुचल देना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प था, संघर्ष विराम का अर्थ होता हासिल की गयी बढ़त को खो देना क्योंकि विश्व बिरादरी के हस्तक्षेप से बाद में परिस्थितियाँ पुनः पाकिस्तान के पक्ष में जा सकती थी। मेजर जनरल जैकब को ढाका में पाकिस्तानी जनरल नियाज़ी से वार्ता के लिए कहा गया। मेजर जनरल जैकब ने ढाका पहुंचकर जो किया वह भारत का स्वर्णिम इतिहास बन गया है। मनोवैज्ञानिक दबाव डालते हुए पाकिस्तानी जनरल नियाजी से कहा गया कि पाकिस्तानी सेना को बिना किसी शर्त के पब्लिक के बीच सरेंडर करना होगा। जनरल नियाजी के पास विकल्प क्या था? भारतीय सेना के पास कूटनीतिक, राजनैतिक, सामरिक और मनोवैज्ञानिक बढ़त थी इसके अतिरिक्त मुक्तिवाहिनी ग़ुस्से से भरी हुई पाकिस्तानी सेना को जड़ से मिटा देने के लिए उतावली थी। 16 दिसम्बर, 1971; भारतीय सेना के लिए गर्व का वह क्षण आया जब शाम साढ़े चार बजे ढाका के रामना रेसकोर्स पर नियाजी ने सरेंडर के दस्तावेज पर दस्तखत किए। पाकिस्तान के लिए शर्मिंदगी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह विश्व इतिहास की वह पहली घटना है, जब किसी देश की सेना ने सार्वजनिक आत्मसमर्पण किया था। जनरल नियाज़ी सहित लगभग 93000 सैनिकों ने भी भारतीय सेना के आगे घुटने टेके और तिरंगे के शौर्य के समक्ष अपना सिर झुकाया। इस तरह 16 दिसंबर, 1971 को पूर्वी-पाकिस्तान नेस्तनाबूद हो गया साथ ही बांग्लादेश नाम का नया देश अस्तित्व में आया।
इस विजय गाथा का पूर्णविराम इतना भर नहीं था। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए इस युद्ध के बाद 2 जुलाई 1972 को शिमला समझौता हुआ था। विचारणीय है कि क्या हमारी सेना ने जो कुछ हासिल किया उसे शिमला समझौते की मेज पर, पल भर में ही गँवा दिया गया था? इस बात का पक्ष और विपक्ष दोनो ही है। यह सही है कि इस समझौते से भारत को पाकिस्तान के सभी 93000 से अधिक युद्धबंदी छोड़ने पड़े और युद्ध में जीती गई 5600 वर्ग मील जमीन भी लौटानी पड़ी थी। जबकि भारतीय युद्धबंदियों को पाकिस्तान ने कभी नहीं छोडा, उनपर की गयी ज्यादतियों की कहानियाँ दशकों तक छन छन कर बाहर आती रही थीं। शिमला समझौते में अन्य कई फैसले हुए थे जिसमें संबंध सामान्य बनाए रखने के लिए द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने पर बल देने, बातचीत के जरिए समाधान तलाशने, व्यापार और आर्थिक संबंध मजबूत करने पर सहमति बनी थी। आज इसमें से कुछ भी प्रभावी नहीं; सम्बंधों का सामान्यीकरण तो दूर की बात है व्यापार तक स्थगित है। यह भी तय हुआ था कि दोनों देश एक दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करेंगे जबकि पाकिस्तान ने कारगिल कर दिया। इसके बाद भे यह सच्चाई भी महत्व की है कि इसी शिमला समझौते की शर्त थी कि दोनों देश आपस में बातचीत के जरिए कश्मीर से जुड़े विवाद सुलझाएंगे, इसमें किसी तीसरी ताकत का दखल स्वीकार नहीं होगा। इसी अनुबंध को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने धारा 370 और 35ए हटये जाने के बाद की परिस्थितियों में पाकिस्तान के एडी चोटी एक करने के बाद भी दखल देने से इनकार कर दिया है। यह ठीक है कि भारत को शिमला समझौते से बहुत अधिक लाभ नहीं हुआ परंतु यह भी उतना ही बडा सच है कि वर्ष 1971 की हमारी विजय ने कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे को खोखला करने में भूमिका निभाई है, साथ ही देश के पूर्वी भूभाग को भारतीय सुरक्षा चिंताओं से अवमुक्त कर दिया। पाकिस्तान ने अपने आधे से कहीं अधिक जनबल को खो दिया था और अब वह विश्व की दूसरी सबसे बडी जनसंख्या और सातवे सबसे बडे भूभाग वाले देश भारत के पश्चिमी छोर पर एक छोटा सा देश रह गया था। आज पाकिस्तान की सम्पूर्ण हैसियत गीदड भभकी की रह गयी है, सही मायनों में इसकी पृष्ठभूमि वर्ष 1971 में लिख दी गयी थी। विजय दिवस की स्वर्ण जयंति का अवसर प्रत्येक भारतीय के लिये गौरव का है।
राजीव रंजन प्रसाद